हिंदी के दलित लेखकों की कहानियों में विद्रोह
Main Article Content
Abstract
शिक्षा, संपत्ति, संसाधन, सत्ता और सम्मान से बहिष्कृत बेदखल दलितों के जीवन-संघर्षों से प्रेरित दलित साहित्य का सृजन सवाल से शुरू होता है। वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा का मनुष्य जीवन से संबंध क्या है? वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा समाज को कैसी शिक्षा देती है? वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा को न्यायोचित ठहराने के लिए द्विज विद्वानों ने किन तर्कों का आधार लिया है? क्या बगैर वर्ण-व्यवस्था के समाज का कोई अस्तित्व नहीं है? इन सवालों का अध्ययन - विश्लेषण करने पर दुनिया के इतिहास में वर्ण व्यवस्था और जातिप्रथा को जन्म देने वाली द्विज कौम में बौद्धिक क्षमताओं की दुर्बलता कहिए या छल-कपट की पराकाष्ठा साबित होती है। शोध से यह बात साफ हुई है कि वर्ण-व्यवस्था व जातिप्रथा के कारण मनुष्य की पहचान अथवा योग्यता उसकी कार्यकुशलता से तय नहीं होती है, बल्कि उसका जन्म जिस जाति में हुआ है उस जाति की समाज में मनुस्मृति ने जो हैसियत तय की हुई है उसी के आधार पर निर्भर रही हैं। शरणकुमार लिंबाले के शब्दों में “दलित आंदोलन एक महायुद्ध है, तो दलित साहित्य एक महाकाव्य है।” दलित साहित्य सदियों से अस्पृश्य, शोषित, उपेक्षित, वंचित मनुष्यों की यातना, संघर्ष और उनके स्वप्न के अनुभवों की आत्मस्वीकृतियाँ है। वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा के इस नये संस्करण में दलितों का अस्तित्व और उनकी अस्मिताओं के सवाल बेहद जटिल बनते दिखाई दे रहे हैं। लेकिन अधिकांश दलित साहित्यकार इस आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण का समर्थन करते दिख रहे हैं। हिंदी की दलित कहानियों में इन सवालों को विचार-विमर्श का विषय बनाया गया है।